15 फरवरी बुधवार को लखनऊ की एक जनसभा को ही ले लीजिए तो कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी ने जहां जनता से सीधा संवाद किया वहीं दूसरी ओर अपने ही नेताओं के नाम लिखे हुए कागज को विपक्षी दलों की लिस्ट बताकर फाड़ दिया। जनता तो इस अदा पर कुर्बान हो कर यही सोच रही थी कि राहुल के ऐसे तेवर तो यूपी की तस्वीर बदल देंगे, इस ‘अभिनय’ का प्रभाव भी वहां मौजूद लोगों को तुरंत दिखाई दे रहा था। सभी इसी पर फिदा थे और राहुल के सवालों के जवाब भी दे रहे थे। इनके सवाल और जवाब तो अपनी जगह हैं ही राहुल को उन्हीं की अदा में सपा प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव जवाब देते हुए सभाओं में कह रहे हैं कि ‘राहुल जी गुस्से में कहीं मंच से न कूद जाएं’। ऐसे ही लोकमंच का गठन करने वाले पूर्व सपा नेता भी जनसभाओं में दाढ़ी बढ़ाकर और विशेष टोपी लगा कर जनता से संवाद कर रहे हैं। कुछ अरसा पहले उनका कारपोरेट कल्चर में भी बड़ा दखल हुआ करता था और अब वह पिछड़े हुए पूर्वांचल की बात कर रहे हैं। इसकी शुरुआत हालांकि चुनाव की घोषणा और दलों से निकालेजाने और शामिल कराने की प्रक्रिया के बाद ही शुरू हो चुकी थी। बसपा से विधायक रहे शाहजहांपुर के ददरौल विधानसभा के विधायक अवधेश वर्मा तो इतने भावुक हो गए कि वह जनता के सामने ही अपने साथ हुए अन्याय का आरोप लगाकर रोने लगे। ऐसे ही नेताओं की बात करें तो सूची लंबी ही हो जाएगी लेकिन सच यही है नेता आजकल आपके बीच इसी प्रकार से हाव-भाव प्रकट कर रहे हैं।
चुनाव के कई प्रत्याशियों के भाग्य का फैसला भी ईवीएम में बंद हो चुका है, लेकिन अवसर अभी भी आपके(मतदाताओं) हाथ है। आमतौर पर सभी क्षेत्रों से एक बात निकलकर सामने आती है कि मतदाता और नेता के आपस में इस प्रकार की वृहद मुलाकात के अवसर कम ही होते हैं, और सच कहें तो शायद पांच साल में एक यही मौका आता है जब नेता जी आपके इतने करीब होते हैं। ऐसे में इन अवसरों पर आपका भीड़ में या नेता जी की सभा में शामिल होना, जवाब देना और सवाल करना तो ठीक है लेकिन आपका भावुक होकर किसी के पक्ष में हो जाना शायद आपका और प्रदेश का भला न कर पाए। ऐसे में आप भी इन अभिनयों के दर्शक तो बनिये लेकिन मतदान से पहले इस प्रकार की यदा-कदा होने वाली सभाओं और इस समय हो रही बयानबाजियों की समीक्षा और अपने मत का महत्व भी समझिए।
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